Sunday 14 April 2013

महर्षि पतंजलि का अष्टांग-योग

महर्षि पतंजलि का अष्टांग-योग


अगर हम योग की बात करें तो सबसे पहले जो नाम मस्तिस्क में उभरता है वो हैं स्वामी रामदेवजी। आज के समय में इन्होने योग को समूचे विश्व में फैला दिया है। लोगों में योग के प्रति जो लगाव पैदा किया है उसका सारा श्रेय उन्हें जाता है। उन्होंने जब भी लोगों को योग सिखाया हमेशा ही यह बात कही की -"यह ज्ञान हमारे ऋषियों ने हमें दिया है, हमें इसका अनुपालन तथा अनुप्रयोग अपने जीवन में करना चाहिए।"
स्वामी रामदेवजी 




           जिस ऋषि ने इस योग विज्ञान की धारा को प्रथम बार जनमानस तक पहुँचाने का काम किया उनका नाम है – महर्षि पतंजलि 
महर्षि पतंजलि
 

महर्षि पतंजलि ने योग के नियमों को सुत्रवत संकलित कर योगदर्शन नामक ग्रन्थ संसार को दिया है। जिसमे उन्होंने योग के अन्य प्रकल्पों के साथ-साथ अष्टांग योग का विस्तार से विवरण किया है। अष्टांग-योग मूल रूप से संस्कृत में लिखी गयी है। कालांतर में इसका बहुत सारे भाषायों में अनुवाद किया गया है ताकि यह ज्ञान को सम्पूर्ण जगत में फैलाया जा सके। बहुत लोग इसको धार्मिक ग्रंथ मानते हैं लेकिन मूलतः यह किसी देवता पर आधारित नहीं है। लेकिन यह शारीरिक योग मुद्राओं का शास्त्र भी नहीं है। यह तो आत्मा और परमात्मा के योग अथवा एकत्व के विषय में है तथा उसको प्राप्त करने के नियमों व उपायों के बारे में है।
  
महर्षि पतंजलि  ने योग की परिभाषा देते हुए इसे  "चित्त की वृत्तियों का निरोधक" कहा है। इसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:

               १. यम
               २. नियम
               ३. आसन
               ४. प्राणायाम
               ५. प्रत्याहार
               ६. धारणा
               ७. ध्यान
               ८. समाधि
   
. यम : पाच सामाजिक नैतिकता
() अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
() सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
() अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
() ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
() अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना


. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

() शौच - शरीर और मन की शुद्धि
() संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
() तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
() स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
() इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

नियम का अर्थ है पवित्रता। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।

महर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं- शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:(योगदर्शन- 2/३२) अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है। 
 
योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।
पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुगरुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुगरुण हैं।
संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए। तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूर्वक जीना।
व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।
स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें। ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो।

 
. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण

योगासन बहुत सारे हैं। जैसे -- चक्रासन, भुजङ्गासन, धनुरासन, गर्भासन, गरुडासन, गोमुखासन, हलासन, मकरासन, मत्स्यासन, पद्मासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वाङ्गासिद्धासन, सिंहासन, शीर्षासन, सुखासन, ताडासन, उड्डीयानबन्ध, वज्रासन, पवनमुक्तासन, कटिपिण्डमर्दनासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, योगमुद्रासन, गोरक्षासन या भद्रासन, मयूरासन, सुप्तवज्रासन, शवासन इत्यादि। इस जगह पर कुछ आसनों को सचित्र दिखाया गया है।

 
. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
प्राणायाम भी बहुत सारे हैं। यहाँ कुछ प्रचलित के नाम लिख रहा हूँ। भ्रष्टिका प्राणायाम, कपालभाति प्राणायाम, बाह्य प्राणायाम, अनुलोम-विलोम प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, उद्गीथ प्राणायाम इत्यादि।


. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना 
प्रत्याहार योग का पांचवां चरण है। योग मार्ग का साधक जब यम (मन के संयम), नियम (शारीरिक संयम) रखकर एक आसन में स्थिर बैठकर अपने वायु रूप प्राण पर नियंत्रण सीखता है, तब उसके विवेक को ढंकने वाले अज्ञान का अंत होता है। तब जाकर मन प्रत्याहार और धारणा के लिए तैयार होता है। चेतना, शरीर और मन से ऊपर उठकर अपने स्वरूप में रुक जाने की स्थिति है प्रत्याहार। प्राणायाम तक योग साधना आंखों से दृष्टिगोचर होती है।
प्रत्याहार से साधना का रूपांतरण होता है और साधना सूक्ष्मतर होकर मानसिक हो जाती है। प्रत्याहार का अर्थ है- एक ओर आहरण यानि खींचना। प्रश्न उठता है किसका खींचा जाना? मन का। योग दर्शन के अनुसार मन इंद्रियों के माध्यम से जगत के भोगों के पीछे दौड़ता है। बहिर्गति को रोक उसे इंद्रियों के अधीन से मुक्त करना, भीतर की ओर खींचना प्रत्याहार है।

स्वामी विवेकानंद ने प्रत्याहार की साधना का सरल मार्ग बताया है। वे कहते हैं मन को संयत करने के लिए- -कुछ समय चुपचाप बैठें और मन को उसके अनुसार चलने दें। मन में विचारों की हलचल होगी, बुरी भावनाएं प्रकट होंगी। सोए संस्कार जाग्रत होंगे। उनसे विचलित न होकर उन्हें देखते रहें। धैर्यपूर्वक अपना अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे मन के विकार कम होंगे और एक दिन मन स्थिर हो जाएगा तथा उसका इंद्रियों से संबंध टूट जाएगा। 
 
. धारणा: एकाग्रचित्त होना 
 
धारणा अष्टांग योग का छठा चरण है। इससे पहले पांच चरण योग में बाहरी साधन माने गए हैं। इसके बाद सातवें चरण में ध्यान और आठवें में समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। धारणा का अर्थ धारणा शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। योग दर्शन के अनुसार- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। अर्थात- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है। स्थिर हुए चित्त को एक ‘स्थान’ पर रोक लेना ही धारणा है।

धारणा में चित्त को स्थिर होने के लिए एक स्थान दिया जाता है। योगी मुख्यत: हृदय के बीच में, मस्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी के विभिन्न चक्रों पर मन की धारणा करता है। हृदय में धारणा:- योगी अपने हृदय में एक उज्‍जवल आलोक की भावना कर चित्त को वहां स्थित करते हैं। मस्तिष्क में धारणा:- कुछ योगी मस्तिष्क में सहस्र (हजार) दल के कमल पर धारणा करते हैं। सुषुम्ना नाड़ी के विभिन्न चक्रों पर धारणा:- योग शास्त्र के अनुसार मेरुदंड के मूल में मूलाधार से मस्तिष्क के बीच में सहस्रार तक सुषुम्ना नाड़ी होती है। इसके भीतर स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा जैसे ऐसे चक्र होते हैं। योगी सुषुम्ना नाड़ी पर चक्र के देखते हुए चित्त को लगाता है।

धारणा धैर्य की स्थिति है। स्वामी विवेकानंद इसकी उपमा प्रचलित किंवदंती से देते हैं। सीप स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद धारण कर गहरे समुद्र में चली जाती है और परिणामस्वरूप मोती बनता है।
धारणा सिद्ध होने पर योगी को कई लक्षण प्रकट होने लगते हैं -- 
 
. देह स्वस्थ होती है।
. गले का स्वर मधुर होता है।
. योगी की हिंसा भावना नष्ट हो जाती है।
. योगी को मानसिक शांति और विवेक प्राप्त होता है।
. आध्यात्मिक अनुभूतियां जैसे प्रकाश दिखता, घंटे की ध्वनि सुनाई देना आरंभ होता है, इत्यादि।
  ७. ध्यान: निरंतर ध्यान

योग साधना का सातवां चरण है ध्यान। योगी प्रत्याहार से इंद्रियों को चित्त में स्थिर करता है और धारणा द्वारा उसे एक स्थान पर बांध लेता है। इसके बाद ध्यान की स्थिति आती है। धारणा की निरंतरता ही ध्यान है। ध्यान की उपमा तेल की धारा से की गई है। जब वृत्ति समान रूप से अविच्छिन्न प्रवाहित हो यानि बीच में कोई दूसरी वृत्ति ना आए उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। पांतजलि योग सूत्र द्वारा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं- तत्र प्रत्ययैकतानसा ध्यानम्, अर्थात- चित्त (वस्तु विषयक ज्ञान) निरंतर रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान कहते हैं।
अष्टांग योग में ध्यान एक खास जीवन शैली का अंग है। आज के प्रचलित तरीकों से अलग यह ध्यान एक लंबी साधना पद्धति की चरम अनुभूति का अंग है। यह मन की सूक्ष्म स्थिति है, जहां जाग्रतिपूर्वक एक वृत्ति को प्रवाह में रहना होता है। धारण और ध्यान से प्राप्त एकाग्रता चेतना को अहंकार से मुक्त करती है। सर्वत्र चेतनता का पूर्ण बोध समाधि बन जाती है। 
 
. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था

अष्टांग योग की उच्चतम सोपान समाधि है। यह चेतना का वह स्तर है, जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है। योग शास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है।
पातंजलि योगसूत्र में कहा गया है- तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। अर्थात - वह ध्यान ही समाधि है जब उसमें ध्येय अर्थमात्र से भाषित होता है और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है। यानि ध्याता (योगी), ध्यान (प्रक्रिया) तथा ध्येय (ध्यान का लक्ष्य) इन तीनों में एकता-सी होती है। समाधि अनुभूति की अवस्था है। वह शब्द, विचार व दर्शन सबसे परे है।
समाधि युक्ति-तर्क से परे एक अतिचेतन का अनुभव है। इस स्थिति में मन उन गूढ़ विषयों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है, जो साधारण अवस्था में बुद्धि द्वारा प्राप्त नहीं होते। समाधि और नींद में हमें एक जैसी अवस्था प्रतीत होती है, दोनों में हमारा (बाह्य) स्वरूप सुप्त हो जाता है लेकिन स्वामी विवेकानंद स्पष्ट करते हैं ‘जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है, तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है। नींद से उठने पर वह पहले जैसे ही रहता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। किंतु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है।’

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